Monday 20 February 2017

विमुद्रिकरण (डिमोनेटीसेसन) का वैदिक परिप्रेक्ष्य

सरकार द्वारा विमुद्रिकरण प्रक्रिया  केवल चर्चा का एक गर्म मुद्दा ही नहीं रहा अपितु एक ऐसा निर्णय था जिसने संपूर्ण राष्ट्र को प्रतिक्रिया करने के लिए बाध्य कर दिया। प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति इस निर्णय से किसी न किसी रूप में प्रभावित अवश्य हुआ।

राजनैतिक अवसरवादियों से लेकर समाज सुधारकों, आध्यात्मिक संस्थानों एवं अनेक महान अर्थशास्त्रियों तक प्रत्येक व्यक्ति ने अपने पैसों को बचाने के लिए संपूर्ण प्रयास किया।  या तो इस निर्णय का तीव्र विरोध किया गया या अनेक लोग इसका समर्थन करते नजर आये।

क्या यह सही निर्णय था?

आइये इस प्रश्न के उत्तर का वैदिक शास्त्रों के परिप्रेक्ष्य से विश्लेषण करते है:

शास्त्र प्रत्येक निर्णय के केवल एक पक्ष पर ही दृश्टिकोण प्रदान नहीं करते अपितु सन्देश देते है कि प्रत्येक निर्णय के अनुकूल एवम विपरीत प्रभाव पड़ते हैं। साथ ही वे इस बात का भी संकेत देते हैं कि ऐसे निर्णय चाहे वे सकारात्मक हो या नकारात्मक, इसके प्रभाव से कोई अछूता नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति को उनसे प्रभावित होना ही पड़ता है और अन्य कोई विकल्प नहीं है।

क्यूँ यह सारी सामाजिक व्यवश्था को प्रभावित कर रहा है? प्रजा को कष्ट हो रहा है?

श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि युद्ध हो, किन्तु उन्हें युद्ध के पक्ष में निर्णय लेना पड़ा। वे भलीभाँति जानते थे कि उसके परिणाम पूर्ण रूपेण अनुकूल नहीं होंगे।

क्या महाभारत के युद्ध का लाभ पांडवों को मिला? इस युद्ध में दुर्योधन जैसे महान आततायी का वध हुआ किन्तु इसने अभिमन्यू का बलिदान भी लिया। गांधारी ने अपने सारे पुत्र खो दिए, द्रौपदी को भी अपने पांच पुत्र, पिता एवम भाई का बलिदान देना पड़ा। अंत में कर्ण भी पांडवों का भाई निकला किन्तु वे उसे भी खो चुके थे।

यद्यपि युद्ध के निर्णायकों ने व्यग्तिगत रूप से ज्यादा लाभ प्राप्त नहीं किया किन्तु इसके अलावा उनके पास सामाजिक व्यवश्था को अस्थिर एवं दूषित करने वाले आततायीयों को हटाने के लिए और कोई विकल्प भी नहीं था।

दुराचारी कौरवों ने एक ऐसी अनैतिक व्यवश्था का निर्माण कर दिया था जिसका उन्मूलन होना अत्यावश्यक था। उन्हें अपनी बनायीं दुर्व्यवश्था पर इतना दृढ़ विश्वास था जैसे उसका कभी विनास ही नहीं हो सकता। सुधार के लिए तुरंत एक बड़े कदम की आवश्यकता थी और यह कदम संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को झकझोरने के लिए पर्याप्त था। जिसने संपूर्ण राष्ट्र को फिर से सुचारू एवम स्थिर करने में अनेकों वर्ष ले लीये।

जब संपूर्ण समाज में लोग स्वार्थपरक एवं निर्बाध सुविधायुक्त जीवन के आदि हो जाते है एवं ऐसे जीवन को बाधित करने वाले पुनर्निर्माण के सकारात्मक निर्णयों को भी लेने से बचने लग जाते है। तब भृष्टाचार बढ़ने लगता है और वह उस भयावह दुर्गम पहाड़ का रूप ले लेता है जिसे हटाना लगभग असंभव हो जाता है । यह स्थिति कुछ समय तक बनी रह सकती है किंतु प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि किसी न किसी व्यक्ति को इसके लिए किसी समय कुछ करना ही होगा। एक व्यापक कदम उठाना ही होगा और उसके लिए समाज को कुछ कीमत चुकानी होगी। इसके अलावा और कोई अन्य विकल्प नहीं है और यह व्यापक कदम थोड़े या लंबे समय के लिए असुविधाएं भी पैदा करेगा।

व्यवश्था सुधार तो पुनर्निर्माण का एक भाग है किन्तु इसके अतिरिक्त्त इसे पूर्ण रूप से स्थापित करना और भी बड़ी चुनौती है। पुनर्निर्माण की स्थापना में हमारी पुरानी स्वार्थपरकता पर आधारित जीवनशैली ही सबसे बड़ी चुनौती है। और यही चुनौती हमें अत्यन्त दुखदायी प्रतीत होती है। किसी भी प्रकार का बदलाव अनुचित एवम असीमित रूप से कष्टप्रद प्रतीत होता है।

अतः किस भी निर्णय को समझना के लिए उसे शास्त्रिक परिप्रेक्ष्य से देखा जाना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि शास्त्रिक तथ्य, चिरस्थायीे एवम सभी परिस्थितियों के लिए प्रासंगिक है। जीवों के विभिन्न मुद्दों चाहे वे देवों, मानवों,  दानवो से सम्बंधित हों या फिर विमुद्रिकरण का ही विषय क्यूँ न हो, वे सभी विषयों को पूर्ण रूप से संबोधित करते है।

Tuesday 14 February 2017

शूद्र एवम स्वतंत्रता

प्रकृति ने मनुष्य को एक अमूल्य उपहार प्रदान किया है- स्वतंत्रता। स्वतंत्रता एक ऐसी सम्पति है जिसका अतिक्रमण देवता भी नहीं होने देना चाहते ।

धार्मिक शास्त्रों में शूद्रों के सामाजिक स्थिति को लेकर आधुनिक समाज के लोग अत्यन्त भ्रम की स्थिति में है। ऐसा माना जाता है कि शूद्रों को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं थी। शास्त्रों में अनेक स्थानों पर शूद्रों का वर्णन आता है जहाँ उन्हें अन्य तीन वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के अधीन ही कार्य करना होता है। विभिन्न तर्कवेत्ताओं के अनुसार शूद्रों के साथ उचित वर्ताव नहीं किया जाता था एवम उनकी स्वतंत्रता का हनन किया जाता था।  किन्तु यह तथ्य कितना प्रामाणिक है यह केवल 100 साल पहले की सामाजिक व्यवश्था का विश्लेषण करने से ही स्पष्ट हो जाता है।

शूद्र अनेक व्यवसायों का प्रतिनिधित्व करते थे जो समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थे। वे तीनों वर्णों की दैनिक आवश्यकताओं एवं कार्यों को सम्पादित करते थे किंतु उन्हें ये सारे कार्य न ही किसी कर्मचारी की तरह और न ही उन्हें अपने परिवार से दूर रहकर करने होते थे।

एक नाई किसी विशेष वर्ग या व्यक्ति के लिए नहीं अपितु सारे वर्णों के लोगों के बाल काटने का कार्य करता था। किसी भी व्यक्ति विशेष का उस पर निजी तौर पर अधिकार नहीं होता था। उसी तरह सुनार, बढ़ई, मोची, सपेरा, दर्ज़ी कुम्हार तथा अपमार्जक का कार्य होता था। सभी अपना कार्य कौशल समाज को प्रदान करते थे किंतु निश्चित समय के लिए बंधे हुए कर्मचारी की तरह नहीं। आज पारंपरिक कार्य प्रणाली पर आधारित कुछ गांवों का विश्लेषण करें तब पाएंगे कि वे आज भी अपने कार्यों को पारम्परिक रूप से निर्वाह कर रहे है किंतु अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं।

विपरीत इसके आधुनिक मानव  ने एक ऐसी जीवन शैली का निर्माण किया है जिसमे सारी सामाजिक व्यवश्था उलझी हुई है। धन, संपत्ति एवम शक्ति की अंधी दौड़ प्रतियोगिता एक दूसरे को निगल रही है।

अनेक कर्मचारी किसी एक व्यक्ति विशेष के बनाये गए नियमों के अनुसार कार्य करने में व्यस्त हैं। बुद्धिजीवी ऐसे मतों या सिद्धांतों को प्रतिपादित करने के लिए बाध्य हैं जो स्वयं उनके अंतर्निहित सिद्धांतो, विचारों एवम अनुभवों के विपरीत हैं। उन्हें ऐसे कार्यों की बाध्यता हैं जहा सत्य को झुठलाकर बेशर्मी पूर्वक पक्षपातपूर्ण कहानियाँ एवम तथ्य के रूप में को समाज के सामने प्रस्तुत करना होता है।

इसलिए धर्म शास्त्र सभी वर्णों की स्वतंत्रता के संरक्षण का अनुमोदन करते है। संसाधनों से कार्य सम्पादित होते है एवं किसी व्यक्ति के पास संसाधन कितने ही कम क्यों न हो किन्तु स्वन्त्रता रूपी संसाधन सभी के पास पूर्ण रूप से विद्यमान होना चाहिए एवं उसका संरक्षण सभी परिस्थितियों में होना चाहिए । इस सिद्धांत के पालन का उदाहरण स्वयं युधिस्ठिर महाराज के जीवन चरित्र से उदृत होता है। महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने के पहले युधिष्ठिर महाराज ने सभी योद्धाओं को पक्ष बदलने की या युद्ध में भाग न लेने की एवम उन्हें अपनी ईच्छा के अनुसार विकल्प चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की। क्योंकि उन्हें इच्छा के विरुद्ध लड़वाना उतना ही हानिकारक था जितना दुर्योधन द्वारा उन्हें नियंत्रित करने के लिए खरीदना या बंदी बनाना।

स्वतंत्रता अत्यंत मूल्यवान सम्पति थी । सामान्य जन  भी कर्मचारियों की तरह बाध्य नहीं थे, अपितु उन्हें अपनी इच्छा एवम कौशल के अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता से अपना जीवन निर्वाह करने के चुनाव का पूर्ण अधिकार प्राप्त था।

स्वतंत्रता - क्या आपके पास है?

Wednesday 1 February 2017

SHUDRA AND INDEPENDENCE

The greatest gift nature has provided to humanity is "Independence".  Freedom is an asset and treasure that even the Devatas avoid infringing upon.  
One of the most misunderstood concepts in Dharmik scriptures is in regards to Shudras. Apparently, Shudras had no independence. Many places in the Dharmik scriptures suggest that Shudras obliged to working for the other three Varnas; namely the Brahmans, Kshatriyas and Vaishyas. Seemingly, there was clear abuse towards the Shudras from the opinion makers and other Varnas. Yet, how accurate was this in reality – even just 100 years ago?
Shudras represented many professions that were crucial for daily functionalities in society. However, while they did fulfill basic needs for people of all three communities, they were never hired as full time workers; they were never forced to live away from their families. A barber would never work as a labourer for one specific person, but his labour was used by all the Varnas; no one employer owned him. Similarly, blacksmiths, carpenters, cobblers, snake charmers, tailors, potters and scavengers, all provided their skills to society, but not as full time workers. Even today, if we observe traditionally operating villages, we find the same phenomena existing for most skilled workers. They work, but not at the cost of freedom.
Contrarily, it is actually modern society that has created an engulfing phenomenon of the ever entangling rat race. Countless full time workers are busy being dictated by their employers. Intellectuals are obligated to form opinions that are against the very core of the beliefs and experiences. People are employed to shamelessly spread slanderous lies and one sided stories while denying the truth.
Therefore, Dharmik scriptures prescribe to protect one’s independence even if that means having fewer resources – as independence is the greatest resource and should be treasured at any cost. That is why prior to the battle of Kurukshetra, Yudhisthira Maharaja offered his warriors the opportunity to switch sides and fight for the opposing army or to even quit the battle. He gave them that choice to follow their desires because forcing people to fight against their will was as harmful as Duryodhana’s sin of controlling them by buying and enslaving them.
Independence was so vital and valuable that even the so called “ordinary” people never became full time workers; they rather chose to work individualistically using their talents to earn their livelihoods.
Independence – do we have it?