सरकार द्वारा विमुद्रिकरण प्रक्रिया केवल चर्चा का एक गर्म मुद्दा ही नहीं रहा अपितु एक ऐसा निर्णय था जिसने संपूर्ण राष्ट्र को प्रतिक्रिया करने के लिए बाध्य कर दिया। प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति इस निर्णय से किसी न किसी रूप में प्रभावित अवश्य हुआ।
राजनैतिक अवसरवादियों से लेकर समाज सुधारकों, आध्यात्मिक संस्थानों एवं अनेक महान अर्थशास्त्रियों तक प्रत्येक व्यक्ति ने अपने पैसों को बचाने के लिए संपूर्ण प्रयास किया। या तो इस निर्णय का तीव्र विरोध किया गया या अनेक लोग इसका समर्थन करते नजर आये।
क्या यह सही निर्णय था?
आइये इस प्रश्न के उत्तर का वैदिक शास्त्रों के परिप्रेक्ष्य से विश्लेषण करते है:
शास्त्र प्रत्येक निर्णय के केवल एक पक्ष पर ही दृश्टिकोण प्रदान नहीं करते अपितु सन्देश देते है कि प्रत्येक निर्णय के अनुकूल एवम विपरीत प्रभाव पड़ते हैं। साथ ही वे इस बात का भी संकेत देते हैं कि ऐसे निर्णय चाहे वे सकारात्मक हो या नकारात्मक, इसके प्रभाव से कोई अछूता नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति को उनसे प्रभावित होना ही पड़ता है और अन्य कोई विकल्प नहीं है।
क्यूँ यह सारी सामाजिक व्यवश्था को प्रभावित कर रहा है? प्रजा को कष्ट हो रहा है?
श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि युद्ध हो, किन्तु उन्हें युद्ध के पक्ष में निर्णय लेना पड़ा। वे भलीभाँति जानते थे कि उसके परिणाम पूर्ण रूपेण अनुकूल नहीं होंगे।
क्या महाभारत के युद्ध का लाभ पांडवों को मिला? इस युद्ध में दुर्योधन जैसे महान आततायी का वध हुआ किन्तु इसने अभिमन्यू का बलिदान भी लिया। गांधारी ने अपने सारे पुत्र खो दिए, द्रौपदी को भी अपने पांच पुत्र, पिता एवम भाई का बलिदान देना पड़ा। अंत में कर्ण भी पांडवों का भाई निकला किन्तु वे उसे भी खो चुके थे।
यद्यपि युद्ध के निर्णायकों ने व्यग्तिगत रूप से ज्यादा लाभ प्राप्त नहीं किया किन्तु इसके अलावा उनके पास सामाजिक व्यवश्था को अस्थिर एवं दूषित करने वाले आततायीयों को हटाने के लिए और कोई विकल्प भी नहीं था।
दुराचारी कौरवों ने एक ऐसी अनैतिक व्यवश्था का निर्माण कर दिया था जिसका उन्मूलन होना अत्यावश्यक था। उन्हें अपनी बनायीं दुर्व्यवश्था पर इतना दृढ़ विश्वास था जैसे उसका कभी विनास ही नहीं हो सकता। सुधार के लिए तुरंत एक बड़े कदम की आवश्यकता थी और यह कदम संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को झकझोरने के लिए पर्याप्त था। जिसने संपूर्ण राष्ट्र को फिर से सुचारू एवम स्थिर करने में अनेकों वर्ष ले लीये।
जब संपूर्ण समाज में लोग स्वार्थपरक एवं निर्बाध सुविधायुक्त जीवन के आदि हो जाते है एवं ऐसे जीवन को बाधित करने वाले पुनर्निर्माण के सकारात्मक निर्णयों को भी लेने से बचने लग जाते है। तब भृष्टाचार बढ़ने लगता है और वह उस भयावह दुर्गम पहाड़ का रूप ले लेता है जिसे हटाना लगभग असंभव हो जाता है । यह स्थिति कुछ समय तक बनी रह सकती है किंतु प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि किसी न किसी व्यक्ति को इसके लिए किसी समय कुछ करना ही होगा। एक व्यापक कदम उठाना ही होगा और उसके लिए समाज को कुछ कीमत चुकानी होगी। इसके अलावा और कोई अन्य विकल्प नहीं है और यह व्यापक कदम थोड़े या लंबे समय के लिए असुविधाएं भी पैदा करेगा।
व्यवश्था सुधार तो पुनर्निर्माण का एक भाग है किन्तु इसके अतिरिक्त्त इसे पूर्ण रूप से स्थापित करना और भी बड़ी चुनौती है। पुनर्निर्माण की स्थापना में हमारी पुरानी स्वार्थपरकता पर आधारित जीवनशैली ही सबसे बड़ी चुनौती है। और यही चुनौती हमें अत्यन्त दुखदायी प्रतीत होती है। किसी भी प्रकार का बदलाव अनुचित एवम असीमित रूप से कष्टप्रद प्रतीत होता है।
अतः किस भी निर्णय को समझना के लिए उसे शास्त्रिक परिप्रेक्ष्य से देखा जाना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि शास्त्रिक तथ्य, चिरस्थायीे एवम सभी परिस्थितियों के लिए प्रासंगिक है। जीवों के विभिन्न मुद्दों चाहे वे देवों, मानवों, दानवो से सम्बंधित हों या फिर विमुद्रिकरण का ही विषय क्यूँ न हो, वे सभी विषयों को पूर्ण रूप से संबोधित करते है।