Tuesday, 14 February 2017

शूद्र एवम स्वतंत्रता

प्रकृति ने मनुष्य को एक अमूल्य उपहार प्रदान किया है- स्वतंत्रता। स्वतंत्रता एक ऐसी सम्पति है जिसका अतिक्रमण देवता भी नहीं होने देना चाहते ।

धार्मिक शास्त्रों में शूद्रों के सामाजिक स्थिति को लेकर आधुनिक समाज के लोग अत्यन्त भ्रम की स्थिति में है। ऐसा माना जाता है कि शूद्रों को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं थी। शास्त्रों में अनेक स्थानों पर शूद्रों का वर्णन आता है जहाँ उन्हें अन्य तीन वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के अधीन ही कार्य करना होता है। विभिन्न तर्कवेत्ताओं के अनुसार शूद्रों के साथ उचित वर्ताव नहीं किया जाता था एवम उनकी स्वतंत्रता का हनन किया जाता था।  किन्तु यह तथ्य कितना प्रामाणिक है यह केवल 100 साल पहले की सामाजिक व्यवश्था का विश्लेषण करने से ही स्पष्ट हो जाता है।

शूद्र अनेक व्यवसायों का प्रतिनिधित्व करते थे जो समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थे। वे तीनों वर्णों की दैनिक आवश्यकताओं एवं कार्यों को सम्पादित करते थे किंतु उन्हें ये सारे कार्य न ही किसी कर्मचारी की तरह और न ही उन्हें अपने परिवार से दूर रहकर करने होते थे।

एक नाई किसी विशेष वर्ग या व्यक्ति के लिए नहीं अपितु सारे वर्णों के लोगों के बाल काटने का कार्य करता था। किसी भी व्यक्ति विशेष का उस पर निजी तौर पर अधिकार नहीं होता था। उसी तरह सुनार, बढ़ई, मोची, सपेरा, दर्ज़ी कुम्हार तथा अपमार्जक का कार्य होता था। सभी अपना कार्य कौशल समाज को प्रदान करते थे किंतु निश्चित समय के लिए बंधे हुए कर्मचारी की तरह नहीं। आज पारंपरिक कार्य प्रणाली पर आधारित कुछ गांवों का विश्लेषण करें तब पाएंगे कि वे आज भी अपने कार्यों को पारम्परिक रूप से निर्वाह कर रहे है किंतु अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं।

विपरीत इसके आधुनिक मानव  ने एक ऐसी जीवन शैली का निर्माण किया है जिसमे सारी सामाजिक व्यवश्था उलझी हुई है। धन, संपत्ति एवम शक्ति की अंधी दौड़ प्रतियोगिता एक दूसरे को निगल रही है।

अनेक कर्मचारी किसी एक व्यक्ति विशेष के बनाये गए नियमों के अनुसार कार्य करने में व्यस्त हैं। बुद्धिजीवी ऐसे मतों या सिद्धांतों को प्रतिपादित करने के लिए बाध्य हैं जो स्वयं उनके अंतर्निहित सिद्धांतो, विचारों एवम अनुभवों के विपरीत हैं। उन्हें ऐसे कार्यों की बाध्यता हैं जहा सत्य को झुठलाकर बेशर्मी पूर्वक पक्षपातपूर्ण कहानियाँ एवम तथ्य के रूप में को समाज के सामने प्रस्तुत करना होता है।

इसलिए धर्म शास्त्र सभी वर्णों की स्वतंत्रता के संरक्षण का अनुमोदन करते है। संसाधनों से कार्य सम्पादित होते है एवं किसी व्यक्ति के पास संसाधन कितने ही कम क्यों न हो किन्तु स्वन्त्रता रूपी संसाधन सभी के पास पूर्ण रूप से विद्यमान होना चाहिए एवं उसका संरक्षण सभी परिस्थितियों में होना चाहिए । इस सिद्धांत के पालन का उदाहरण स्वयं युधिस्ठिर महाराज के जीवन चरित्र से उदृत होता है। महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने के पहले युधिष्ठिर महाराज ने सभी योद्धाओं को पक्ष बदलने की या युद्ध में भाग न लेने की एवम उन्हें अपनी ईच्छा के अनुसार विकल्प चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की। क्योंकि उन्हें इच्छा के विरुद्ध लड़वाना उतना ही हानिकारक था जितना दुर्योधन द्वारा उन्हें नियंत्रित करने के लिए खरीदना या बंदी बनाना।

स्वतंत्रता अत्यंत मूल्यवान सम्पति थी । सामान्य जन  भी कर्मचारियों की तरह बाध्य नहीं थे, अपितु उन्हें अपनी इच्छा एवम कौशल के अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता से अपना जीवन निर्वाह करने के चुनाव का पूर्ण अधिकार प्राप्त था।

स्वतंत्रता - क्या आपके पास है?

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